आम चुनाव ख़त्म हो चूका है. परिणाम भी घोषित हो चुके हैं. जहां एक ओर भाजपा के 400 पार के नारे की हवा देश की जनता ने निकाल दी वहीं वोटर्स ने ये बता दिया की लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है कोई नेता नहीं. एक तरफ़ जहां मोदी ने पुरे चुनाव के दौरान हिन्दू-मुसलमान से लेकर अपने को अवतरित बताने और जनता को मुख्य मुद्दे से भटकाने का प्रयास किया वहीँ दूसरी तरफ़ राहुल-प्रियंका, शरद पवार-उद्धव ठाकरे और अखिलेश ने कम संसाधनों के बावजूद पूरी ताक़त के साथ चुनाव लड़कर भाजपा को बहुमत से दूर कर दिया. इसमें कोई दो राय नहीं की ये चुनाव जनता लड़ रही थी लेकिन इन नेताओं ने जनता को अपने भरोसे में लेकर लड़ाई को जीत में बदलने का काम किया. इसके लिए विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और बंगाल की जनता को दिल से सलाम.
इंडिया गठबंधन के नेता के तौर पर सबसे ज़्यादा निराश तेजस्वी यादव ने किया. तेजस्वी यादव की राजनीति का विश्लेषण होना इसलिए भी ज़रूरी है राज्य में अगले साल चुनाव है. राजद सेक्युलर पॉलिटिक्स की सबसे बड़ी हिस्सेदार है बिहार में.
इस लोकसभा चुनाव में नितीश कुमार की पार्टी को ख़त्म हो जाने वालों की भविष्यवाणी को विराम लग चूका है. नितीश कुमार ने दिखा दिया है की सामाजिक समीकरण के माहिर वो हैं तेजस्वी नहीं. तेजस्वी यादव के सामाजिक समीकरण का नारा फ़ेल हो चूका है.
ऐसा नहीं था की कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की हालत उत्तर प्रदेश में तेजस्वी की पार्टी से कुछ अलग थी. ऐसा नहीं था की उत्तर प्रदेश में राहुल-प्रियंका-अखिलेश और महाराष्ट्र में शरद पवार-उद्धव ठाकरे की चुनौतियां कम थीं. और ऐसा भी नहीं था की उत्तर प्रदेश में इनकी तिकड़ी और महाराष्ट्र में शरद पवार-उद्धव ठाकरे की जोड़ी से कम जगह तेजस्वी ने चुनाव प्रचार किया. फ़िर क्या कारण हुए की तेजस्वी चुनाव परिणामों को जीत में नहीं बदल सके.
राजद के मुख्य वोटर मुस्लिम और यादव रहे हैं. नितीश कुमार के सियासी उदय के पहले राजद या जनता दल गरीबो-पिछड़ों की पार्टी रही. लेकिन धीरे-धीरे यादवों को छोड़कर बाक़ी पिछड़ी जातियां नितीश कुमार या भाजपा के साथ चली गईं. इसलिए मुख्यतः कहा जा सकता है की राजद माई समीकरण के साथ बनी रही है. लालू यादव के जेल जाने के बाद और तेजस्वी यादव के पार्टी टेक ओवर करते माई के बड़े कैडर मुसलमानों में बेचैनी दिखने लगी थी. तेजस्वी यादव ने भी कभी मुसलमानों की इस बेचैनी को समझने का प्रयास नहीं किया. मुस्लिम कोटे से कुछ ब्यापारी टाइप के लोगों को जगह देने के इलावा तेजस्वी की पार्टी में मुसलमान हाशिये पर जाता रहा और ये बेचैनी 18-35 साल आम मुसलमानों में देखी जा सकती है. ये वही दौर था जब नरेंद्र मोदी की राजनीति पूर्ण रूप से हिन्दू-मुस्लिम अजेंडे पर काम कर रही थी और बिहार ही नहीं पुरे देश के मुसलमानों में एक बेचैनी थी. चाहे बाबरी मस्जिद मामला हो, मुसलमानों की लिंचिंग हो, कम्युनल दंगे हों, ट्रिपल तलाक़ का मामला हो या CA/NRC हो, मुसलमान सेक्युलर पार्टियों की तरफ़ उम्मीद की नज़र से देख भी रहा था और उसको नोटिस भी कर रहा था. तेजस्वी यादव हर मोड़ पर, हर मुद्दे पर अपने पिता के विपरीत कमज़ोर दिख रहे थे. सिर्फ़ बयानबाज़ी तक अपनी ज़िम्मेदारी मान कर वो मुसलमानों को संतुष्ट कर देना चाहते थे. 2019 में सीमांचल की किशनगंज सीट पर AIMIM का चुनाव लड़ना और 2020 के विधानसभा चुनाव में सीमांचल से 5 सीट जीतना सेक्युलर मुस्लिम वोटर में भ्र्म का माहौल पैदा कर रहा था. मुस्लिम बुद्धिजीवी वर्ग राजद से कटने लगा था. भले वो वोट राजद और कांग्रेस को कर रहे थे लेकिन एक उदासीनता सी आने लगी थी. युवा मुस्लिम मतदाता का एक वर्ग खुलकर तेजस्वी के विरोध में बोलने लगा था. पढ़े-लिखे यादव भाजपा की तरफ़ पहले ही मुड़ना शुरू हो गए थे. जहां यादव प्रत्याशी होते वहां वो वोट करने लगे चाहे वो राजद का प्रत्याशी हो या एनडीए का. पार्टी के प्रति उनकी वफ़ादारी अब उतनी मज़बूत नहीं थी जितनी लालूजी के समय में हुआ करती थी. इस बात का भी मुस्लिम नौजवानों में एक रोष का कारण बन रहा था की हमारा वोट तो ट्रांसफर होता है लेकिन मुस्लिम कैंडिडेट जहां होता है वहां यादवों का उस जोश के साथ वोट ट्रांसफर नहीं होता. ये सब जब चल रहा था तो तेजस्वी अपनी एक नई टीम बनाने में लगे थे जहां उनके सलाहकार मंडली में उनके कैडर वोटर मुस्लिम और यादव दोनों में से कोई नहीं था. एक बाहर से लाये संजय यादव जो कभी उनका सेक्रेटरी का काम संभाल रहा था और कभी उनका पोलिटिकल एडवाइजर होने का दावा कर रहा था. ये वही संजय यादव था जिसने पहली बार ऑन रिकॉर्ड कहा था 'RJD is not party of MY Equation’. उसके बाद राजद A to Z की पार्टी बन गई. तेजस्वी यादव ने अपने पिता के समय के सभी जुझारू, तजुर्बेकार और समर्पित सीनियर लीडर को दरकिनार करके नौसिखिये लोगों को जगह देना शुरू किया. क़ारी शोएब जैसे मंच पर मुकुट पहनाने वाले को मुस्लिम कोटे से एमएलसी बनाया, फ़ारूक़ शेख़ जैसे बैग ब्यापारी को एमएलसी बनाया तो अशफ़ाक़ करीम और फ़ैयाज़ अहमद जैसे मेडिकल कॉलेज के मालिकों को 'ब्यवस्था' टाइट रखने के लिए राजयसभा भेज दिया. इन सभी नेताओं की मुसलमानों में न कोई शाख़ थी न कोई पकड़. मुसलमान अपनी साझीदारी की दुर्गति होते देख रहा था. ऐसा नहीं था की ये सिर्फ़ मुसलमानों के साथ हो रहा था. तेजस्वी यादव ऐसे गूंगे-बहरे लोगों को ही जगह दे रहे थे जिसकी ज़मीनी कोई शाख़ ही नहीं थी. रैलियों में भीड़ और संसाधन जो जुटा पाए वही नेता बन रहा था.
कुल मिलाकर तेजस्वी यादव ढाई लोगों के साथ पार्टी चला रहे थे, संजय यादव, मनोज झा और जे एन यू छात्र संघ अध्यक्ष का चुनाव हारा हुआ प्रत्याशी जयंत जिज्ञाशु. पार्टी के वरिष्ठ नेता और लालूजी के क़रीबी शिवानंद तिवारी जी तक सिस्टम से बाहर हो चुके थे. पुराने और जुझारू कार्यकर्त्ता अनदेखा होकर थक गए थे और घर बैठ चुके थे या और किसी पार्टी में अपनी जगह तलाश कर ली थी. प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह पटना मुख्य कार्यालय तक सिमित थे. मनोज झा एक क़ाबिल आदमी हैं जिनकी बौद्धिक क्षमता पर सवाल नहीं किया जा सकता. इन सारे बदलाव के बाद क्या बिहार जैसे विशाल, जातीय प्रमुख और विविधताओं वाले राज्य को संभाला जा सकता था ?
बिंदुवार कुछ बातों को समझना ज़रूरी है :-
1) कमज़ोर होता संगठन
लालू यादव के समय में राजद एक संगठित पार्टी थी. ज़िले-ज़िले में पार्टी कार्यलय था जहां पदाधिकारी और कार्यकर्त्ता के बीच एक संवाद और जुड़ाव था. लालूजी से कोई भी छोटे से छोटा पदाधिकारी या कार्यकर्त्ता सीधे मिल सकता था. अब कुछ चमचे-चाटुकारों के भरोसे पूरी पार्टी चलती है. चाहे जिला हो या पटना मुख्य कार्यलय संगठन नाम की कोई चीज़ नहीं. तेजस्वी यादव, जगदानंद सिंह और कुछ चमचे-चाटुकारों के भरोसे पूरी पार्टी चलती है.
2) नेता और जनता के बीच संवाद का अभाव
लालू यादव जनता से सीधा संवाद करते थे. गांव के ग़रीब-गुरबा से लेकर किसान-ब्यापारी और यहां तक की नाचने-गाने वाले तक की पहुंच सीधा लालू यादव तक थी. कोई भी लालूजी का नाम लेकर प्रशासन से अपना काम करा लेता था. तेजस्वी यादव 2015 से लेकर शायद कभी चुनाव प्रचार के इलावे जनता के बीच गए हों. एक दो बार यात्राओं का आयोजन किया भी होगा तो महज भाषणों तक ही जनता उनसे जुड़ पाई होगी.
3) प्रत्याशियों की जनता से दूरी
कुछ एक नेताओं को छोड़ दिया जाए तो तेजस्वी यादव ने जितने लोगों को टिकट दिया उनका जनता से पिछले 5 सालों में कोई जुड़ाव नहीं रहा था. न जनता के प्रति इन नेताओं का कोई समर्पण रहा था न जनता का इनसे जुड़ाव. जनता के अंदर चुनाव का उत्साह ख़त्म हो चूका था और उसकी जगह उदासीनता ने ले ली था. चुनाव प्रचार में जो भीड़ दिख रही थी उससे चुनाव के नतीजों का अंदाज़ा लगाने वाले विश्लेषक मुंह के बल गिर चुके हैं.